“राजस्थान का भौतिक विभाजन”:-लगभग 60 करोड़ वर्ष पूर्व पृथ्वी पर एक विशाल भू- खण्ड पैंजिया था, इस भू-खण्ड के चारों और विशाल जलराशि थी जिसे पेंथालासा नाम से जाना जाता हैं।
– कालांतर में यह खंड दो भागों में विभाजित हो गया- गौंडवाना लेंड, अंगरा लेंड।
– राजस्थान को भौतिक दृष्टिकोण से चार भागो में विभाजित किया गया हैं।
- पश्चिमी रेतीला मैदान
- अरावली पर्वतीय प्रदेश
- पूर्वी मैदानी प्रदेश
- दक्षिण पूर्वी पठारी क्षेत्र
इन चारों भौतिक प्रदेशो में सबसे प्राचीन अरावली क्षेत्र है जबकि सबसे नवीनतम पश्चिमी रेतीला मैदान है।रेतीला मैदान का उद्भव व विकास 4000 ई. पू. से 1000 ई. पू. के मध्य माना गया है।
– पश्चिमी रेतीला मैदान टेथिस महासागर के अवशेष जबकि अरावली व दक्षिण पूर्वी पठारी प्रदेश गोंडवाना लैंड का हिस्सा है।
– साहित्यिक शब्दावली के दृष्टिकोण से इस भू-भाग के लिए सामान्यतः तीन शब्दों का प्रयोग हुआ है-
- मरु- मरुस्थलीय क्षेत्र
2.माल- पठारी क्षेत्र
- मेरु- पहाड़ी,अन्य।
“पश्चिमी रेतीला मैदान थार का मरुस्थल”-
– यह रेतीला मैदान ग्रेट पेलियो आर्कटिक अफ्रीका का पूर्वी भाग है।
– यह विश्व का सबसे घनी आबादी वाला मरुस्थल है तथा यहां सर्वाधिक जैव विविधता देखने को मिलती है।
– यह विश्व का 17 वां सबसे बड़ा मरुस्थल है।
– इस मरुस्थलीय क्षेत्र पर प्रमुख रूप से अवसादी चट्टानों का जमाव पाया जाता है अतः यहां जैव पेट्रोलियम खनिजों के विशाल भंडार उपस्थित है।
– इस मरुस्थल का विस्तार भारत व पाकिस्तान के दो जिलों में है। पाकिस्तान के थारपारकर क्षेत्र के नाम पर इसका नाम थार का मरुस्थल पड़ा है।
– भारत में यह मरुस्थल गुजरात, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा के क्षेत्रों तक फैला हुआ है।
– देश के कुल मरुस्थल का 62% राजस्थान में है।
– राजस्थान के कुल भू-भाग के 61.11% भू-भाग पर इसका विस्तार है तथा यहां राजस्थान की 40 % आबादी निवास करती है अर्थात राजस्थान के चारों भौतिक प्रदेशों में सर्वाधिक जनसंख्या इसी प्रदेश में है।
– कुल क्षेत्रफल- 1,75,000 वर्ग km
– उत्तर से दक्षिण की लंबाई- 640 किलोमीटर
– पूर्व से पश्चिम चौड़ाई- 300 किलोमीटर
– जैसलमेर का सम गांव पूर्णतः वनस्पति विहीन गांव है।
– पश्चिमी रेतीले मैदान में चांदन नलकूप स्थित है जिसे थार का घड़ा कहा जाता हैं।
– जैसलमेर का नाचना गांव ऊँटो के लिए व मरुस्थल के प्रसार के लिए प्रसिद्ध है।
– इस भौतिक प्रदेश में धरातल का ढलान उत्तर से दक्षिण की ओर व पूर्व से पश्चिम की ओर है।
– इस भौतिक प्रदेश में अधिकतम 50 cm वर्षा होती है।
– वर्षा के आधार पर पश्चिमी रेतीले मैदान को दो भागों में विभाजित किया गया है।
:- वर्षा
– शुष्क रेतीला(0-25cm)
- बालुका स्तूप मुक्त प्रदेश
- बालुका स्तूप युक्त प्रदेश
– अर्ध शुष्क(25-50cm)
– पश्चिमी रेतीले मैदान 58.50% भाग बालुका स्तूपो से आच्छादित है।
– शुष्क रेतीला मैदान:-
इस क्षेत्र में सामान्यतः वर्षा 25cm तक होती है।
– इसे दो खंडों में बांटा जा सकता है –
- बालुका स्तूप मुक्त प्रदेश:-
इस प्रदेश पर कोई बालुका स्तुप नहीं पाए जाते हैं, यह क्षेत्र मुख्यत रामगढ़ से पोकरण तक स्थित है। जिसमें लाठी सीरीज क्षेत्र आता है। इसमें विभिन्न घासें सेवण, धामण, करड़, अंजन पाई जाती है।
- बालुका स्तूप युक्त प्रदेश:-
इस भौतिक प्रदेश में विभिन्न बालुका स्तूप देखने को मिलते हैं।
– पवनानुवर्ती / रेखिय बालुका
स्तूप:- इस प्रकार के बालुका स्तूप 10 – 60 cm ऊंचे लम्बवत श्रेणियों में दिखाई देते हैं। इनका विस्तार जैसलमेर, जोधपुर, बाड़मेर क्षेत्रों में है।
– बरखान / अर्धचंद्राकार बालुका स्तूप :- यह बालुका स्तूप 10 – 20 cm की ऊंचाई तथा 100 – 200 cm चौड़ाई वाले सर्वाधिक गतिशील होते हैं, इस प्रकार के बालुका स्तूप मलेरी (चूरू), जैसलमेर, सूरतगढ़ (श्रीगंगानगर), करणी माता मंदिर (बीकानेर), ओसिया आदि क्षेत्रों में पाए जाते हैं।
– तारा बालुका स्तूप:- इस प्रकार के बालुका स्तूप मोहनगढ़, पोकरण, सूरतगढ़ आदि क्षेत्रों में पाए जाते हैं।
– अनुप्रस्थ बालुका स्तूप:- इस प्रकार के बालुका स्तूप वायु की दिशा के समकोण में बनते हैं, इस प्रकार के बालुका स्तूप रावतसर, सूरतगढ़, चूरु, झुंझुनू आदि क्षेत्रों में पाए जाते हैं।
-पैराबोलिक बालुका स्तूपो का विस्तार संपूर्ण राजस्थान में देखने को मिलता है। अवरोही बालुका स्तूप का विस्थापन नाव पहाड़, बुढा पुष्कर, बिचन पहाड़, जोबनेर आदि क्षेत्रों में देखने को मिलता है।
– जैसलमेर व बाड़मेर जिले पूर्णता मरुस्थली जिले हैं।
– जोधपुर एकमात्र जिला है जहां सभी प्रकार के बालुका स्तूप देखने को मिलते हैं।
– जैसलमेर जिले में बालुका स्तूपो की आकृति लहरदार हो जाती है,जिसे धरियन / धोरे कहा जाता है।
इस रेतीले मैदान में खड़ीन जल संरक्षण की विधि है, जिसके द्वारा सिंचाई कार्य किया जाता है।
– पश्चिमी रेतीले मैदान में वर्षा काल के दौरान अस्थाई झीलों का निर्माण हो जाता है। जिसके सूखने से दलदली भूमि बनती है जिसे टॉड / रन कहा जाता है।
– बालुका स्तूपो की कतार के मध्य निचली भूमि जो वर्षाजल से मुक्त होती है उसे भरहो कहा जाता है।
– रेतीले मैदान में विपरीत दिशा में बहने वाली पवनों से जिन टीलो का निर्माण होता है उन्हें सीप जाता है।
- अर्द्धशुष्क रेतीला मैदान (25 -50 cm वर्षा)=
– इस प्रदेश को सामान्यता चार भागों में बांटा गया है।
- घग्घर बेसिन:-
इसका विस्तार श्रीगंगानगर व हनुमानगढ़ जिले में है।
हनुमानगढ़ जं. धरातल के पेटे से नीचा है अतः घग्घर नदी में जल अधिक होने पर यह डूब जाता है।
- शेखावाटी प्रदेश:-
इस प्रदेश में कच्चे कुएं खोदे जाते हैं जिन्हें स्थानीय भाषा में जोहड़ कहा जाता है।
जोहड़ का सबसे गहरा भाग चोभी कहलाता है।
- नागौरी उच्चभूमि प्रदेश:-
यह भौतिक प्रदेश लवणता युक्त क्षेत्र है तथा यहां पर सर्वाधिक खारे पानी की झीले पाई जाती है।
– राजस्थान की नमक मंडी नावा नागौर में स्थित है।
- लुणी बेसिन:-
इस भौतिक प्रदेश में लूनी नदी व उसकी सहायक नदियों का क्षेत्र शामिल होता है।
Note:-(1) नाग की पहाड़ी पर अजमेर के क्षेत्रों में भयंकर वर्षा होती है तो बालोतरा बाड़मेर में बाढ़ आती है।
(2) नागौर के पठार का पूर्वी भाग कूबड़ पट्टी के नाम से जाना जाता है।
महत्वपूर्ण तथ्य :-
– मरुस्थल में जल सरंक्षण :-
आगोर :- प्राचीनकाल में मरुस्थलीय प्रदेश के घरों में उपयोग किए जाने वाले जल के टांके उन्हें स्थानीय भाषा में आगोर कहा गया है।
नाडी :- मानव अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति व पशुपालन हेतु जल का संचय करता है, उसे नाडी के नाम से जाना जाता है।
बेरी :- नाडी व खड़ीन के आसपास रिशने वाले जल को पुनः उपयोग के लिए छोटे- छोटे कुए बनाए जाते हैं, जिन्हें स्थानीय भाषा में बेरी कहते हैं
– वर्षा के जल को सामान्यतः पालर पानी कहा जाता है।
– प्रारंभ में राजस्थान के 12 जिले मरुस्थली जिले थे, परंतु राजस्थान विश्वविद्यालय केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय व यूनेस्को के द्वारा एक पत्र जारी किया गया जिसमें पाँच जिलों में मरुस्थल का विकास हुआ है (जयपुर, अजमेर, राजसमंद, सिरोही, अलवर)।
– मरुस्थलीकरण का प्रसार 44.42% वायु से,11.20% जल से, 6.25% वनस्पति विनाश से व शेष अन्य कारणों से हो रहा है।
– वन उन्मूलन मरुस्थलीकरण की तीव्रता के साथ आगे बढ़ रहा है। अरावली की खत्म होती स्थिति भी पूर्वी राजस्थान के क्षेत्रों में मरुस्थलीकरण को आगे बढ़ा रही है।
अरावली पर्वतमाला:-
अरावली पर्वतमाला विश्व की सबसे प्राचीनतम वलित पर्वतमाला है जो वर्तमान में अवशिष्ट रूप में विद्यमान है।
– विश्व की सबसे नवीनतम, निर्माणाधीन पर्वत माला हिमालय है।
– इस पर्वत माला को ही मेरु पर्वत, सुनेरु पर्वत, परिपत्र, आडावल पर्वत, हरियाणा में ढासी पहाड़ियाँ आदि उपनामों से जाना जाता है।
– अरावली पर्वतमाला का उद्भव प्री-कैंब्रियन युग में हुआ तथा यह गोंडवाना लैंड का हिस्सा है।
– आकृति व संरचना के दृष्टिकोण से इसकी तुलना USA के अप्लेसियन पर्वतमाला से की जा सकती है।
– अरावली की भूगर्भिक बनावट का वर्णन 1923 में ए. एम. हेरोन के द्वारा किया गया।
– अरावली ग्रेनाइट व क्वाटरजाइट से निर्मित है तथा राजस्थान के चारों भौतिक प्रदेशों में इस भौतिक प्रदेश में सर्वाधिक खनिज पाए जाते हैं।
– इस पर्वतमाला का उद्गम अरब सागर से होता है अतः अरब सागर को अरावली का पिता कहा गया है।
– धरातल पर अरावली का विस्तार खेड़ा ब्रह्मा पालनपुर गुजरात से राजस्थान, हरियाणा,रायसीना पहाड़ी दिल्ली तक है । (तीन राज्य+ एक केंद्र शासित प्रदेश)
– अरावली की कुल लंबाई 692 किमी है। रायसीना पहाड़ी पर ही राष्ट्रपति भवन बना हुआ है।
– राजस्थान में यह पर्वतमाला माउंट आबू सिरोही से खेतड़ी झुंझुनू तक के 13 जिलों में विस्तारित है तथा राजस्थान में इसकी लंबाई 550 किमी है।
(कुल का लगभग 80%)
– अरावली का विस्तार राजस्थान में विकिरण के रूप में है अर्थात यह दक्षिण – पूर्व से उत्तर – पूर्व की ओर फैली हुई हैं।
– अरावली पर्वतमाला राजस्थान के 9.3% भू – भाग पर फैली हुई है। यहां राजस्थान की 10 % जनसंख्या निवास करती है तथा इस प्रदेश में लगभग 50 cm वर्षा होती है।
– अरावली की सर्वाधिक ऊंचाई – सिरोही
न्यूनतम ऊंचाई – अजमेर
सर्वाधिक विस्तार- उदयपुर
न्यूनतम विस्तार – अजमेर
– अरावली की औसत ऊंचाई 930 / 933 मीटर हैं।
– अरावली पर्वतमाला राजस्थान में जल विभाजक के रूप में कार्य करती है।
इसके पूर्व की ओर बहने वाली अधिकांश नदियों का जल बंगाल की खाड़ी में जबकि पश्चिम की ओर बहने वाली अधिकांश नदियों का जल अरब सागर में जाता है। अरावली पर्वतमाला मरुस्थल का विस्तार पूर्व की ओर होने से रोकती है।
– अरब सागर से आने वाली मानसूनी पवने अरावली के समानांतर निकल जाती है जबकि बंगाल की खाड़ी की ओर से आने वाली पवनों के रास्ते में बाधा का कार्य करती हैं अतः पूर्वी राजस्थान के क्षेत्रों में अच्छी वर्षा होती है।
जबकि पश्चिमी अरावली का क्षेत्र कम वर्षा के रह जाता है।
जिसे वृष्टि छाया क्षेत्र के नाम से जाना जाता है।